देहरादून, 14 नवंबर 2025 : उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में जंगली जानवरों के हमलों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। जनवरी से सितंबर 2025 तक ही वन्यजीवों के हमलों में 27 लोगों की जान जा चुकी है, जबकि 138 लोग घायल हुए हैं। तेंदुए, भालू और जंगली सूअर जैसे जानवर अब गांवों में घुसकर निर्दोष ग्रामीणों पर हमला कर रहे हैं। चमोली जिले के थराली तहसील के हिमनी गांव में हाल ही में एक भालू ने एक ग्रामीण को मार डाला, जबकि पिथौरागढ़ के धारचूला में दो लोगों को भालू ने घायल कर दिया। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान में वृद्धि ने इस संकट को और गहरा दिया है। लेकिन वन विभाग की निष्क्रियता, देहरादून में बैठे अधिकारियों की लापरवाही और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण ग्रामीण अब गांव छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की लगातार फटकार के बावजूद जंगल क्षेत्रों में जमीन हड़पने और अवैध निर्माण के मामले थम नहीं रहे, जो इस संकट की जड़ को और मजबूत कर रहे हैं।
हमलों के प्रमुख कारण: मानव-वन्यजीव संघर्ष की जड़ें
उत्तराखंड में मानव-वन्यजीव संघर्ष के पीछे कई कारण हैं। वनों की कटाई, शहरीकरण और प्राकृतिक शिकार की कमी से जानवर गांवों की ओर रुख कर रहे हैं। जंगली सूअर फसलों को नष्ट कर रहे हैं, जबकि तेंदुए और भालू पशुओं पर हमला कर रहे हैं। 2025 में ही पौड़ी के सतपुली में भालुओं ने कई हमले किए, जिसमें दो महिलाएं गंभीर रूप से घायल हुईं। विशेषज्ञों के अनुसार, वनों में शिकार की कमी और आवास का संकुचन मुख्य वजहें हैं। इसके अलावा, खुले में कचरा फेंकना और पशुओं का अंधाधुंध चरना भी संघर्ष को बढ़ावा दे रहा है। लेकिन इन सबके पीछे वन विभाग के भ्रष्टाचार का हाथ भी है, जहां अवैध कटाई और निर्माण से जंगलों का क्षेत्र सिकुड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन का काला साया: पहाड़ों में तापमान वृद्धि का असर
जलवायु परिवर्तन इस समस्या की जड़ में है। हिमालयी क्षेत्र में ऊपरी चोटियों का तापमान तेजी से बढ़ रहा है, जिससे जानवरों का आवास सिकुड़ रहा है। वन्यजीव संस्थान ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक उत्तराखंड में 36 स्तनधारी प्रजातियां, जैसे कस्तूरी मृग और हिमालयी सिरो, ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित हो जाएंगी। पौड़ी गढ़वाल, अल्मोड़ा और चंपावत जैसे जिलों में बढ़ते तापमान ने भालुओं को घाटियों में धकेल दिया है। बर्फबारी कम होने से भालू ऊपरी इलाकों से नीचे उतर आ रहे हैं, जहां वे मनुष्यों से टकरा रहे हैं। यह न केवल जानवरों के लिए खतरा है, बल्कि ग्रामीणों के लिए भी मौत का पैगाम बन गया है। फसल चक्र बिगड़ने से किसान और जानवर दोनों भुखमरी का शिकार हो रहे हैं। अवैध निर्माण और जमीन हड़पने से यह समस्या और विकराल हो गई है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दोगुना कर रहा है।

वन विभाग की नाकामी: देहरादून में बैठे अधिकारियों का फर्जीवाड़ा और सुप्रीम कोर्ट की फटकार
वन विभाग पर ग्रामीणों का गुस्सा भड़क रहा है। ‘लिविंग विद लेपर्ड्स’ जैसी योजनाओं के बावजूद हमले रुकने का नाम नहीं ले रहे। पौड़ी और अल्मोड़ा को हॉटस्पॉट घोषित करने के बाद भी पेट्रोलिंग की कमी है। चमोली के हिमनी गांव में भालू हमले के बाद ग्रामीणों ने वन विभाग पर लापरवाही का आरोप लगाया। विभाग के पास स्टाफ की कमी है—कई बीटों पर एक ही गार्ड तैनात है। लैंटाना जैसे झाड़ियों की सफाई के लिए बजट नहीं आया, जो तेंदुओं को आकर्षित करती हैं। 2025 में 406 संघर्ष घटनाओं में 64 मौतें हुईं, फिर भी विभाग केवल जागरूकता अभियान की बात करता है।
लेकिन असली समस्या देहरादून में बैठे वरिष्ठ अधिकारियों की है, जो जमीनी हकीकत से कटे हुए हैं। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में 6,000 से ज्यादा पेड़ों की अवैध कटाई और इको-टूरिज्म के नाम पर निर्माण को सुप्रीम कोर्ट ने “राजनेताओं और अधिकारियों के गठजोड़” का क्लासिक केस बताया। कोर्ट ने पूर्व वन मंत्री और पूर्व डीएफओ किशनचंद की निंदा की, लेकिन कार्रवाई ठप। मई 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को निर्देश दिया कि राजस्व विभाग के पास मौजूद आरक्षित वन भूमि को वन विभाग को सौंपें और निजी हाथों में हस्तांतरित भूमि को वापस लें। फिर भी, उत्तराखंड में 11,383 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण बरकरार है।
गंभीर आरोप लगातार सामने आ रहे हैं। मसूरी वन प्रभाग में 7,375 सीमांकन स्तंभ गायब हो गए, जिसके लिए जाने माने ईमानदार आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ने एसआईटी गठन की मांग की। पूर्व डीजीपी बीएस सिद्धू पर राजपुर रेंज में वन भूमि धोखे से खरीदने और 25 साल के पेड़ काटने के आरोप। पूर्व वन मंत्री पर अवैध निर्माण और मनी लॉन्ड्रिंग के केस, जहां ईडी ने 17 जगहों पर छापे मारे, पर कार्यवाही राजनीतिक समीकरण साधने तक सीमित दिखी। आईएफएस अधिकारी एचके सिंह और डीएफओ अखिलेश तिवारी पर कॉर्बेट में अवैध निर्माण का मामला फिर खुला। ये अधिकारी देहरादून में आराम से बैठे हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बावजूद कोई डर नहीं। ग्रामीण कहते हैं, “हमारी जान की कीमत पर वन्यजीव संरक्षण और भ्रष्टाचार? यह अन्याय है!” जवाबदेही की कमी से समस्या और गंभीर हो रही है—अधिकारियों को ‘इंटीग्रिटी सर्टिफिकेट’ दिए जा रहे हैं, भले ही भ्रष्टाचार के आरोप हों।
गांव छोड़ने की मजबूरी: भय का पलायन
जंगली हमलों के डर से ग्रामीण पलायन कर रहे हैं। 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 6% लोग वन्यजीवों के भय से पहाड़ छोड़ चुके हैं। पौड़ी के चौबट्टाखाल और क्वीन गांवों में ‘घोस्ट विलेज’ बन गए हैं—लोग देहरादून या हरिद्वार जैसे मैदानी इलाकों में जा रहे हैं। अल्मोड़ा जिले में 10.99% फसल क्षति के कारण किसान खेती छोड़ रहे हैं। महिलाएं और बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं, क्योंकि वे जंगल में चारा लेने जाती हैं। पलायन से गांव खाली हो रहे हैं, जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को मिटा रहा है। भ्रष्टाचार से जंगल सिकुड़ने से यह पलायन और तेज हो गया है।
समाधान के रास्ते: संघर्ष को कैसे रोका जाए?
इस संकट से निपटने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। वन विभाग को सोलर फेंसिंग, एलीफैंट-प्रूफ ट्रेंच और पत्थर की दीवारें लगानी चाहिए। 2021 में शुरू हुए 39 करोड़ के मानव-वन्यजीव संघर्ष न्यूनीकरण प्रोजेक्ट को सख्ती से लागू करें। रेडियो कॉलरिंग से जानवरों की निगरानी बढ़ाएं और ग्रामीणों को त्वरित मुआवजा दें I जागरूकता अभियानों में स्थानीय भाषा का इस्तेमाल करें और पेट्रोलिंग टीमों को मजबूत बनाएं। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वनों का संरक्षण और तापमान नियंत्रण पर काम हो। ग्रामीणों को वैकल्पिक रोजगार दें ताकि वे जंगल पर निर्भर न रहें।
लेकिन सबसे जरूरी है भ्रष्टाचार पर लगाम: सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर एसआईटी गठित करें, दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करें और जवाबदेही सुनिश्चित करें। देहरादून में बैठे अधिकारियों को जमीनी स्तर पर उतारें, ताकि अतिक्रमण और अवैध निर्माण रुकें। यदि ये कदम उठाए गए, तो देवभूमि के निर्दोष ग्रामीणों की जिंदगी बचाई जा सकती है।
यह संकट केवल जानवरों का नहीं, बल्कि इंसानियत और प्रशासन का भी है। सरकार को अब सोचना होगा—क्या वन्यजीव संरक्षण और भ्रष्टाचार ग्रामीणों की जान की कीमत पर होगा? उत्तराखंड के पहाड़ चीख रहे हैं, सुनने वाला कौन?
(रिपोर्ट: भानु प्रताप सिंह, पिथौरागढ़ -आंकड़े इन्टरनेट रिपोर्ट, वन विभाग, डब्ल्यूआईआई रिपोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों पर आधारित।)
